Thursday, July 14, 2016

Gulzar

उखाड़ दो अरज़-ओ-तूल खूँटों से बस्तियों के
समेटो सड़कें, लपेटो राहें
उखाड़ दो शहर का कशीदा
कि ईंट-गारे से घर नहीं बन सका किसी का

पनाह मिल जाये रूह को जिसका हाथ छूकर
उसी हथेली पर घर बना लो
कि घर वही है
पनाह भी है।
तुम्हारे हाथों में मैंने देखी थी एक अपनी लकीर, सोनाँ


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जिस्म सौ बार जले फिर वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वह कुन्दन होगी


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कब से बैठा हुआ हूँ, मैं ‘जानम’
सादे काग़ज़ पर लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगा


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1 comment:

Onkar said...

बहुत खूब