Friday, December 08, 2017

कतरनें

वो जो घर था, जिसका तुम सपना देखा करती थीं , वो कैसा है?


साहिल पर बैठ कर, समंदर में कोई छोटी सी नाव देखते हैं न, तो कभी वो साफ़ साफ़ दिखाई देती है, और कभी एकदम गायब हो जाती है. जैसे कभी कहीं थी ही नहीं. वो भी ऐसा ही है. कभी एकदम सच लगता है, जैसे हाथ बढ़ाओ तो छू लो. कभी यूँ गायब होता है, जैसे कल्पना में भी न रहा हो कभी. 


वो कश्ती गायब नहीं होती. आँख से ओझल होती है. बहुत फर्क है. 


वो कश्ती, किसी पत्थर से टकरा कर टूट जाती है, तो हमें पता भी नहीं चलता. 

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